1.आदमी और औरत मूल रूप से बेवकूफ नहीं होते और न ही वे दुखी होना चाहते हैं। लड़का भी ठीक होता है और लड़की भी ठीक ही होती है अक्सर, but गड़बड़ कहाँ हो जाती है? गड़बड़ हो जाती है और लोगों के कारण। जब realization होती है तो लड़का सोचता है - लड़की इनको संतुष्ट करे, उन्हें संतुष्ट करें। लड़की सोचती है - ठीक है मैं सबको संतुष्ट करूं। किंतु सबको संतुष्ट नहीं किया जा सकता। सबके system में खुद को नहीं ढ़ाला जा सकता, और यदि एक बार करके किसी की संतुष्टि करा दी तो उसकी तृप्ति नहीं होती। मोह बढ़ता ही जाता है जिस प्रकार इंसान की भूख बढ़ती चली जाती है जैसे पैसे के लिए, काम के लिए, चीज के लिए। संतुष्ट होने की भूख बढ़ती है इसीलिए ज़्यादा उम्मीद बन जाती हैं। लड़की की भी उम्मीद होती है कि मेरे किये का सिला मिले । और लड़के की ओर से उम्मीद होती है कि सबको और तृप्ति कराई जाए। इसीलिए लड़की की उम्मीद कभी पूरी हो ही नहीं पाती क्योंकि लड़का अभी और उम्मीद किए बैठा है। अगर live and let live करने की सोचा जाए तो शायद ज़्यादा बेहतर स्थिति हो सकती है। यानी कि तुम भी जियो और मैं भी जियूं। थोड़ा-सा स्वार्थी होना अच्छा होता है यानी कि अपनी तो सोचो पर साथ-साथ यह भी जरुरी है कि दूसरे की भी सोचो। विचित्र है - देना भी है,लेना भी है, चाहिए भी और नही भी। हां, limitation होनी चाहिए-चाहने की, endless होगी तो दिक्कत आती है। इसका निष्कर्ष और निचोड़ यह है कि मुझे ये नही चाहिए अगर मिल जाता है तो बाकी मैं दूजे के लिए छोड़ देता हूं। हां, ये अच्छा है otherwise तो बहुत कठिन हो जाता है। इसीलिए शादियां गड़बड़ होती हैं।
2. हर भविष्य का एक भूतकाल होता है, इसीलिए हर वर्तमान अपने आप में एक भूतकाल है। जो हम जी चुके वो हम कभी जी रहे थे और जो हमने किया या हुआ वो भविष्य की किसी घटना के लिए है। कर्मफल कभी भी व्यर्थ नहीं जाता। यदि शुभ फल मिला तो अवष्य ही हमने शुभ कर्म किया होगा और बुरे कर्म के द्वारा अशुभ फल तय है, यही नियती है। उसका फलित कभी नहीं बदलता। एक chain reaction की तरह हम कर्म करते हैं। आज कुछ किया वो आगे क्या फल देगा ये मालूम नहीं होता। आज हमें जो सही लगा वो हम करते हैं। क्या मालूम वो सही है या गलत - ये तो समय बताता है। लेकिन जो जब किया तब वो सही लगा इसलिए ही किया। इसलिए उस समय वो ठीक था। और उसके अतिरिक्त कोई और रास्ता भी नहीं था। इसीलिए वो फल तब सही था। तो पश्चाताप व्यर्थ है। पश्चाताप एक प्रकार का escapism है जिससे हम खुद को झूठला देते हैं। खुद को बचाने का प्रयास करते हैं। बचने का भी प्रयास करते हैं। पश्चाताप हमें acceptance नहीं लेने देता। हममें स्वीकारोक्ति नहीं आती। Surrender नहीं हो पाता। surrender न होने के कारण हम ईश्वर से दूर रहते हैं, समर्पण नहीं है तो ईश्वर नहीं है। ईश्वर नहीं है तो सफलता नहीं है। कुछ भी पाने के लिए श्रीचरणों में भेंट देनी ही पड़ती है। हमारा मानसिक द्वंद सही या गलत का भेद भूलता रहता है। जबकि कुछ भी सही है या गलत - ये तो समय बताएगा। फल सही तो कर्म सही, फल गलत तो कर्म गलत। इसीलिए कर्म करते वक्त ये निर्धारित नहीं करना चाहिए कि सही कर रहे हैं, ये सही होगा, या ये इसीलिए कर रहे हैं क्योंकि इसे सही ही होना है। हमारा ये निर्धारण एक प्रकार से स्वार्थ है। हम ये चाहते हैं कि ये सही हो। इसीलिए हम पहले ही सोच लेते हैं कि सही होने के लिए ही ये कर्म कर रहै हैं और हम स्वंय को ये यकीन दिला देते हैं कि अकेला यही रास्ता है सही होने के लिए। ये तो भविष्य बताता है कि अब पासा गलत पड़ा जो कभी शायद हमें सही लगा था। तो कोई कर्म सही या गलत अच्छा या बुरा नहीं होता, जब तक उसका फल न मिल जाए। पाप और पुण्य की परिभाषा मनुष्य के अनुसार बदलती है - अलग-अलग बुद्धि, अलग-अलग विचार। स्वतंत्र है व्यक्ति पाप या पुण्य कहने के लिए। क्या पाप है, क्या पुण्य - इसका भेद कोई नहीं जानता। हमारे अंदर का ईश्वर जब जाग्रत होता है तब हम शायद समझ पाते हैं कि पाप और पुण्य एक नज़रिया मात्र है-असल में कुछ भी नहीं। हम सब कर्म-बंधन में बंधे हैं और कुछ करने को बाध्य हैं और स्वंय ही अपने exam का result दे देते हैं कि ये पाप है और ये पुण्य। मात्र ----- करने जैसा खेल है ये। लगता है ये खेल ही है। कर्म से विहीन होने का खेल। खुद का बचाने का रास्ता। शब्दों की माया अन्यथा सब कर्म है।
3. भगवान शब्द अपने आप में अर्थ रखता है। भूमि, गगन, वायु, अग्नि और नीर - जो पंचभूत तत्वों को दर्शाते हैं। तभी कहा जाता है कि पांच तत्वों से बना शरीर, अपने आप में हम ही भगवान हैं, हममें ही भगवान है। इसी शब्द का दूसरा अर्थ ‘भग’ और ‘वान’ के संगम से भी बनता है। ‘भग’ माता का सूचक है, और ‘वान’ पुरुष लिंग का। माता को इसलिए भगवती कहा जाता है - भग को धारण करने वाली। जब भगवान शब्द का सम्मिलित रुप देखा जाए तो भग और वान सगंम से एक नए जीव की उत्पति होती है। इसलिए ये चमत्कार देन है भगवान की। तो पंचभूत तत्व से बने इस शरीर में प्राण-संचार होने से जीव की जो उत्पति होती है। उसके रहस्य को दर्शाने वाला शब्द भगवान है। इस शब्द में अनेकानेक रहस्य बने हुए हैं। यह शब्द और तत्व अलग है। हम एक जीव होने के नाते अपने जीवन में हर चीज, हर बात, हर विषय के लिए एक केन्द्र बनाते हैं। मानसिक रुप से हम जिस इष्ट वरण करते हैं वो हमारा ईश्वर होता है। ‘इष्ट’ क्या है? इष्ट हमारा प्रमुख देवता है। हमारा वो representer जिसकी अगुंली पकड़ कर यदि हम चले तो जीवन एक सही दिशा में चलता है। ईश्वर के स्वरुप मे, भगवान के स्वरुप में, प्रभु के स्वरुप में हम देवी-देवता की कल्पना करते हैं। ये देवी और देवता हम महसूस नहीं कर पाते। इसलिए उन्हें देखने का प्रयास करते हैं। दिखने में एक आकृति होनी चाहिए। इसलिए उनको स्वरुप देते हैं। उस स्वरुप को सुसज्जित करने के लिए हम आम मनुष्य से विभिन्न प्रकार की भिन्नता लाते हैं। स्त्री है उसी का रुप ले लिया - दुर्गा, पार्वती, सरस्वती। इसी प्रकार पुरुष है तो - शिव है, हनुमान है, गणपति इत्यादि। ये कल्पना हमें किसी शक्तिमान ईष्वर, भगवान या प्रभु का आभाष कराती है।
4. और ये देवता के हेतु हम अपनी भावनाएं समर्पित करते हुए उनको पूजते हैं। देवी या देवता कैसे निकलते हैं ? यही मनुष्य की सोच है। विष्णु को सत्य का देवता कहा गया है, पर उसकी कल्पना देखिए। यदि विष्णु बनना है यानि कि संतोष पाना है, सुख पाना है और भोग भी पाना है तो व्यक्ति को विष्णु-कर्म करना पड़ता है। विष्णु-कर्म क्या है ?
यदि देखेंगे तो पायेंगे कि विष्णु शिवसागर में यानि अनंत गहराइयों में बसे महासागर में शेषनाग की शय्या पर बैठे हैं और महालक्ष्मी उनके चरण दबा रही हैं यानि कि मनुष्य को यदि संसार रुपी अथाह महासागर में लक्ष्मी को भोगना है तो उसको हर समय नाग के फन के नीचे चैतन्य होकर रहना पड़ेगा और लक्ष्मी को भी सीने नहीं लगाना है बल्कि उसे अपने चरणों में रखना है। अब वो उसकी सेवा करेगी अन्यथा आप लग गए लक्ष्मी भोगने में यानि कि भोग भोगने में तो सांप डस लेगा। ज़रा-भी इधर-उधर ध्यान बंट गया तो सागर में डूब जाएंगे। इसलिए विष्णु-कर्म करना बहुत कठिन है। मनुष्य माया में लिप्त हो ही जाता है। ये एक प्रकार का संदेश है - हमारे धर्मवेदों का मनुष्य के लिए। इसी प्रकार ब्रह्म है - ब्रह्मा। अणु - सबसे छोटा रुप। एक-एक करके जिस प्रकार गिनती चलती है और 100 बन जाते हैं, उसी प्रकार एक ब्रह्म हम हैं जिसके द्वारा हम चल रहे हैं। हम अपने आप में एक बहुत बड़ी मशीन की तरह हैं जिसमें current ब्रह्म के द्वारा है। मनुष्य न तो पालनहार को पूजता है और न ही जन्मदाता को। मनुष्य सिर्फ उसे पूजता है जिससे वो डरता है। शिव की संरचना भी एक कल्पना के द्वारा ही है। प्रमुख देवता धरती पर फल देने वाले शिव ही हैं। शिव के ही स्वरुप को गणपति, हनुमान आदि और उन्हीं की पत्नी पार्वती के स्वरुप -महाकाली, दूर्गा के रुप में पूजा की जाती है। प्रमुखत: एक प्रकार से ये देवी-देवता की पूजा के द्वारा प्रसन्न शिव ही होते हैं। इसलिए शिव की पूजा अगर अन्त में भी की जाए तो भी वे अपनी पत्नी और पुत्र की पूजा हो जाने से भक्त पर प्रसन्न हो जाते हैं। किस रुप में कौन-से भगवान को पूजना है?, किस स्वरुप में शिव से कृपा लेनी है? ये जानकारी हमारे धर्मवेदों ने अनेकानेकों वर्ष पहले की थी उन्होनें ये ज्ञात कर लिया था कि ---------- तक पहुंचना है। ये जो रास्ता है हमें एक इष्ट चुनने की तरकीब बताता है। हमारा देवता हमारा इष्ट होता है और उस इष्ट की पूजा-अर्चना करने के द्वारा हम प्रमुख देव तक पहुंते हैं।
5. शास्त्रों में शिव चंद्रमा के समान है। धरती पर रहने वाले सब मनुष्य व अन्य जीव पंचभूत तत्वों से बने हैं जिसमें जल तत्व सर्वाधिक है। जल तत्व हमें चंद्रमा की किरणों से प्राप्त हुआ है। चंद्रमा धरती का सबसे नज़दीकी ग्रह है। विज्ञान में भी ये चीज़ कही जा चुकी है कि हमारा शरीर 80 प्रतिशत तक जल है। इसलिए चंद्रमा से हम सबसे अधिक प्रभावित होते हैं। जल तत्व ही एक प्रकार से शरीर में हर चीज़