कर्म तथा भाग्य का फल

कर्म तथा भाग्य का फल


भाग्य एक विचित्र संज्ञा है, ये बात अक्सर भ्रम पैदा करती है, कि कर्म और भाग्य क्या है ? क्या कर्म और भाग्य एक हैं या अलग । इस भ्रम को स्पष्ट करना और समझना अत्याधिक कठिन ही नहीं बल्कि असंभव है, फिर भी इस पर प्रकाश डालने का प्रयास किया जा सकता है । सर्वप्रथम यह दो शब्द आपस में इस प्रकार गुथे हुए हैं जैसे आटे में नमक, जिसके स्वाद को महसूस तो किया जा सकता है, किंतु इन्हें अलग नहीं किया जा सकता । जन्म लेते ही शिशु की मुट्ठी बंद होती है । यदि उसकी मुट्ठी को खोलें तो हम उसके हाथ में पहले से कुछ लकीरों को पाऐंगें । कोई भी ज्ञाता ज्योतिषी  शिशु की जन्मकुंडली के द्वारा जीवन की यदि अधिक न सही तो कुछ ऐसी अहम् घटनाओं के बारे में भविष्यवाणी दे सकता है जो उसके भविष्य में घटित होनी है । यह अपने आप में किसी अद्भुत एंवम् चमत्कारिक बात से कम नहीं है । उसके हाथ की रेखाएं उसके भाग्य को दर्शाती हैं । ये रेखाएं अपने आप में अमिट हैं यानि जो भाग्य में लिखा है उसे भोगना ही पड़ता है । कुछ लोग सुख भोगने को मजबूर हैं तो कुछ दुःख । कई योग्य व्यक्ति धक्के खा रहें और शायद कुछ गंवार धनवान व शक्तिशाली हैं, यह सब भाग्य का खेल है । विचित्र बात यह है कि भाग्य हेतु हम स्वतः वैसा ही कर्म करते चले जाते हैं तथा जीवन में कभी - कभी अति सुख तथा अति दुःख प्राप्त करते हैं।

ऐसा प्रतीत होता है कि कर्म, कर्म न होकर भाग्य के हाथों चलाए जाने वाली क्रिया है किंतु यह भी सत्य है कि कर्म स्वतंत्र है । ये दोनों बाते अपने आप में विरोधात्मक हैं परंतु यदि गूढ़रुप से समझा जाए तो ये दोनों ही साथ चलती हैं । हम अपने जीवन में भाग्य द्वारा निर्देशित कर्म करतें हुए, भाग्य द्वारा ही प्रदत दिया जाने वाला भोग्य प्राप्त करते हैं । कई लोग सर्वश्रेष्ठ मशीनरी, कुशल कारीगर, पूर्णधन इत्यादि लगाने के बाद भी असफल हो जाते हैं यानि उनके कर्म को भाग्य की मोहर नहीं मिलती और भाग्य में ही यह भी अवश्य लिखा होता है, वह व्यक्ति साधन सुलभ होकर भी असफल होगा । हमारे जीवन की सफलता और असफलता भाग्य द्वारा ही मिलती है । अब कर्म स्वतंत्र किस प्रकार है यदि हम इसका अवलोकन करें तो एक ऐसा भाग्य का सितारा हमारे जीवन में होना आवश्यक है जो हमें अचानक यह भेद सिखा दे कि किस कर्म से हम कहा पहुंचेंगें, तो एक प्रकार से हम भाग्य को कर्म द्वारा निर्देशित कर सकते हैं किंतु महत्वपूर्ण बात यह है कि यह भी भाग्य में होना चाहिए। 

हमारे जीवन में जुडने वाली तथा जुड़े हुए व्यक्ति के द्वारा हमारा भाग्य घटता या बढ़ता रहता है, किसी व्यक्ति के बच्चे को स्वंय उस व्यक्ति से अधिक सुख या दुःख मिलते देखा गया है । उस बच्चे के भाग्य में वाहन के भोग लिखे होने से उसका पिता स्वयं भी बच्चे के भाग्य के जरिए उसे भोगता है । कुछ लोग विवाह पश्चात् सफल या असफल हो जाते हैं । यह उनके कुंडली मिलान पर निर्भर है । ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जीवन साथी का भाग्य हमारे भाग्य के द्वारा और हमारे भाग्य पर पूर्ण एवंम् अवश्यम्भावी असर देकर ही रहता है । ‘गीता’ में एक विशेष बात कही गई है कि भाग्य का निर्माण प्रारब्ध में किए गए कर्मानुसार होता है । यह बात एक नए प्रश्न को जन्म देती है कि प्रारब्ध किसने देखा है? पर देखा जाए तो यह जीवन में निश्चित रुप से नजर आती है कि कुछ न कुछ अज्ञात ऐसा अवश्य है जिसके कारण कोई व्यक्ति जन्म से भाग्यशाली

 होता है, कोई कर्म से, और किसी का दुर्भाग्य उसे पैदा ही दरिद्र के घर कराता है । यानि वह अज्ञात बात कहीं न कहीं किसी ऐसी बात से जुड़ी है जो इस जन्मे हुए बच्चे से अभी संबंधित है ही नहीं । क्योंकि उसने अभी कोई कर्म या क्रिया की नहीं है । जिस पूर्वजन्म को किसी ने देखा नहीं ऐसा माना जाता है कि उस जन्म या जन्मों में संचित एवम् क्रियमाण कर्मों के द्वारा भाग्य का निर्धारण होता है एंवम् उसका कुछ अंश हम हर एक जन्म में भोगते हैं । अपनी बुद्वि एंवम् सांसारिक ज्ञान द्वारा हम कर्म करने के योग्य बनते हैं । यदि किसी इच्छा की पूर्ति हेतु हम अत्यधिक कर्म करते हैं एंवम उस कर्म को करने के दौरान कष्ट प्राप्त करते हैं तो वह कष्ट एंवम् हमारे द्वारा किए प्रयास उस वस्तु विशेष के लिए एक प्रकार का भुगतान बन जाता है और उस अग्रिम भुगतान के बदले में हम उस को प्राप्त कर लेते हैं, यह एक प्रकार से भाग्य से छीनना या कर्म द्वारा भाग्य पर विजय होना है । लेंकिन कुछ समय पश्चात् वह चीज जो असल में भाग्य द्वारा स्वतः नहीं मिलती थी वह हमसे मोह ‘लगवाकर’ कुछ समय का आनंद देकर चली जाती है अन्यथा दुःख देना शुरू कर देती है । इसलिए भाग्य से छीनी चीजों को बनाए रखने के लिए लगातार उपाय करने ही पड़ेंगें तब तक भुगतान कर्म द्वारा होता रहेगा । इसलिए भाग्य से लड़ना व्यर्थ है फिर भी यह समझना बहुत कठिन है ।